लक्ष्मीनाथ बेजवरुवा निबंध लेखन
नमस्कार, सभी को इस पर निबंध लेखन लक्ष्मीनाथ बेजवरुवा-अपने प्रिय साहित्यकार के बारे मे लिखा गया है।
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लक्ष्मीनाथ बेजवरुवा अपने प्रिय साहित्यकार [HSLC- ’15, 20]
प्रस्तावना- लक्ष्मीनाथ बेजवरुवा के बाबा एक उच्चकोटि के विद्वान थे।
लक्ष्मीनाथ के पिता का नाम दीनानाथ बेजवरुवा तथा माँ का नाम थानेश्वरी देवी था।
एक बार श्री दीनानाथ अपने पिता के साथ असम घूमने के लिए आये। वहीं पर घूमते समय उनकी भेंट असम के महाराज से हो गयी।
वे उच्च कोटि के चिकित्सक एवं विद्वान थे अतः उनकी विद्वता से प्रभावित होकर वहाँ के महाराज ने उन्हें लखीमपुर की जमीन-जायदाद के अतिरिक्त अन्य सुविधाएँ भी प्रदान की।
लक्ष्मीनाथ के पिताजी दीनानाथ भी अपने पिता की भाँति एक कुशल वैद्य थे। असम में रहकर ही इनका विवाह हुआ था।
एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ। पंडित दीनानाथ जी अंग्रेजों के शासन के समय असम के पहले मुंसिफ बने तत्पश्चात् डिप्टी कलेक्टर बनें।
कलेक्टर होने के कारण इन्हें पूर्ण असम राज्य का घूम-घूमकर निरीक्षण करना पड़ता था। इन्हीं दिनों असम के राजा पुरन्दर सिंह अस्वस्थ हो गये।
महाराजा को पंडित दीनानाथ के द्वारा चिकित्सा लेनी पड़ी और वे पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गये। स्वस्थ होने के उपरान्त महाराजा ने दीनानाथ से प्रसन्न होकर उन्हें बेजवरुवा की उपाधि से विभूषित किया।
इसके पश्चात यह उपाधि परम्परागत रूप से इनके पत्रों के नाम के साथ भी जुड़ गयी। लक्ष्मीनाथ जी असम का दौरा करने के लिए नौका द्वारा निकले।
उस समय चारों ओर चाँदनी छिटकी हुई थी, क्योंकि पूर्णिमा की रात्रि थी। चन्द्रमा ब्रह्मपुत्र के स्वच्छ जल में स्पष्ट दिखायी दे रहा था।
नौका से भ्रमण करते समय रात्रि को समस्त परिवार को आहतगुरि नामक स्थान पर रुकना पडा। उसी स्थान पर पं. दीनानाथ जी को सन 1868 ई० में पत्ररत्न की प्राप्ति हर्ड क्योंकि उस दिन लक्ष्मी पूर्णिमा थी अत: उनके पिता ने उनका नाम लक्ष्मीनाथ रख दिया।
यह अपने पिता के पाँचवें पुत्र थे। शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाँति लक्ष्मीनाथ जी का शारीरिक व मानसिक विकास होता गया, क्योंकि लक्ष्मीनाथ एक सभ्य और ससंस्कत एवं धार्मिक परिवार में उत्पन्न हए थे ।
अतः इन्हें उत्तम संस्कार अपने परिवार से प्राप्त हए। ये अपने पिता दीनानाथ के साथ बैठकर अक्सर भजन-कीर्तन तथा नाम प्रसंग करते थे।
लक्ष्मीनाथ धार्मिक प्रवृत्ति के थे। धर्म के प्रति आस्था एवं उत्तम संस्कारों में जन्म लेने के फलस्वरूप उनके विचार उन्नत एवं आदर्श थे. लेकिन स्वतन्त्र प्रवृत्ति के थे।
लक्ष्मीनाथ जी यद्यपि बचपन से ही प्रतिभाशाली थे, लेकिन उनके चरित्र की यह बहत बडी विशेषता थी कि उन्हें बनावटीपन से चीढ़ थी।
विद्यालय को वह कैयदखाना समझते थे। उन्हें प्रकृति की गोद प्रिय थी अतः वह वन-वन घूमतेफिरते थे।
उनको खुला व स्वतन्त्र वातावरण प्रिय था। उसका प्रमुख कारण लक्ष्मीनाथ जी सिद्धार्थ की भाँति इस सम्पूर्ण संसार के रहस्य को जानने की इच्छा रखते थे।
लेकिन लक्ष्मीनाथ जी को अपने पिता पर अटूट श्रद्धा थी। अतः पिता के आदेशानुसार प्रतिदिन विद्यालय जाने पर विवश हो गये।
कभी-कभी इनके पिता दीनानाथ जब दौरे पर निकलते , तो लक्ष्मीनाथ जी को भी अपने साथ ले जाते थे।
बचपन से ही लक्ष्मीनाथ जी प्रतिभाशाली छात्र थे। अतः इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। ऐन्ट्स की परीक्षा के उपरान्त यह उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता गये।
अतः कलकत्ता में रहकर इन्होंने बी.ए. तथा बी.एड. की उपाधि प्राप्त की, लेकिन वे एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने में असमर्थ रहे।
शिक्षा समाप्त करने के बाद लक्ष्मीनाथ जी को अंग्रेज सरकार ने सरकारी नौकरी करने के लिए परामर्श दिया।
लेकिन बचपन से ही स्वतन्त्रता प्रवृत्ति के लक्ष्मीनाथ ने अंग्रेजी सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया, क्योंकि लक्ष्मीनाथ जी पराधीन होकर रहना अच्छा नहीं मानते थे।
उनका विचार था कि पराधीन व्यक्ति एक कैदी की भाँति होता है। अतः वह अंग्रेजों की गुलामी के पक्ष में कदापि न थे।
उनका कहना था कि मुझे धन व सत्ता का लालच नहीं है। मैं अंग्रेजो की पराधीनता कदापि स्वीकार नहीं करूँगा, क्योंकि मैं अंग्रेजों से घृणा करता हूँ।
अपने छात्र जीवन में ही लक्ष्मीनाथ की मित्रता एक लकड़ी के व्यापारी भोलानाथ बरुवा के साथ हो गयी। उन दोनों की मित्रता अटूट थी व विचारों में भी मेल था।
अतः इन्होंने हावड़ा में लकड़ी का कारोबार प्रारम्भ किया, इस व्यापार में दोनों मित्र एक-दुसरे का सक्रिय सहयोग करते रहे।
इनका विवाह सन 1919 में सत्येन्द्रनाथ ठाकर की पुत्री सुन्दरी देवी से हुआ। इसके बाद भी लक्ष्मीनाथ बेजवरुवा ने सम्भल में प्रथक व्यवसाय प्रारम्भ किया।
जिसका नाम इन्होंने ‘टिम्बर स्टोर्स एण्ड एजेन्सी’ रखा। इस व्यवसाय में उन्हें अत्यधिक लाभ हुआ।
लक्ष्मीनाथ बेजवरुवा लकड़ी के व्यवसाय के साथ-साथ साहित्य-साधना में भी रुचि लेते रहे। ‘जोनाकी’ नामक पत्रिका का भी इन्होंने सम्पादन किया।
बाँहो’ पत्रिका के माध्यम से लक्ष्मीनाथ जी ने असमवासियों में चेतना की भावना उत्पन्न कर दी।
असमवासियों को जीवन की असली पहचान हई और वह अपने जीवन का सफल बनाने के लिए प्रयत्नशील हुए।
लक्ष्मीनाथ बेजवरुवा एक सफल एवं प्रतिभाशाली साहित्यकार थे। ईश्वर का अनुकम्पा से न तो उनको धनधान्य की कमी रही, न प्रतिभा की।
वह एक-हास्य लेखक, सफल कहानीकार, उच्चकोटि के भाषा विशेषज्ञ. यगद्रष्टा व देशप्रेमी भा थे।
वह एक समाज-सधारक के रूप में भी प्रसिद्ध थे. क्योंकि उन्होंने अपन साहित्य द्वारा असमवासियों में जागरूकता उत्पन्न की।
असम से यद्यपि लक्ष्मीनाथ दूर रहते थे, लेकिन उनको असम की धरती से अपार प्रेम था।
इन्होंने जीवन-पर्यन्त असम के विकास के लिए प्रयास किया। इस असम पुत्र का निधन 26 मार्च, सन् 1938 को हो गया।
वास्तव में लक्ष्मीनाथ ने असमवासियों की उन्नति के लिए अथक प्रयास किया। असमिया साहित्य नवीन-शैली के वे जन्मदाता थे।
उनके जीवन के रग-रग में भारतीयता का समावेश था। उन्होंने समाज को आशा, प्रेरणा एवं नव चेतना प्रदान की।